पूर्णयोग

 

जगत् के बारे में तीन धारणाएं

 

१. बुद्ध और शंकर के मत :

 

   जगत् एक भ्रम है वह अज्ञान के कारण, अज्ञान और दुःख का क्षेत्र है । करने लायक चीज बस यही है कि जितनी जल्दी हो सके इससे निकलकर 'आदि असत्' या 'अव्यक्त' में विलीन हो जाओ ।

 

२. प्रचलित वेदान्त की धारणा :

 

   जगत् तत्त्वत: भगवान् है क्योंकि 'भगवान्' सर्वव्यापी हैं । लेकिन उनकी बाहरी अभिव्यक्ति विकृत, अन्धकारमयी, अज्ञानमयी और भ्रष्ट है । एकमात्र करने लायक चीज है आन्तरिक भगवान् के प्रति सचेतन होना और जगत् के बारे में परेशान हुए बिना उसी चेतना में स्थित रहना; क्योंकि यह बाहरी जगत् नहीं बदल सकता और हमेशा अपनी इसी स्वाभाविक अचेतना और अज्ञान की अवस्था में रहेगा ।

 

३. श्रीअरविन्द की दृष्टि :

 

    जगत् जैसा कि अभी है वह भागवत सृष्टि नहीं है जो उसे होना चाहिये, बल्कि उसकी अन्यकारमयी और विकृत अभिव्यक्ति है । वह भागवत चेतना और इच्छा की अभिव्यक्ति नहीं, है लेकिन वह है वही बनने के लिए; इसका सृजन इसीलिए हुआ है कि यह परम प्रभु के सभी रूपों और पहलुओं में-'प्रकाश'', 'ज्ञान' 'शक्ति' । 'प्रेम' और 'सौन्दर्य' में-'उनकी' पूर्ण अभिव्यक्ति में विकसित हो ।

 

     हमारी जगत् के बारे में यही धारणा है । हम इसी लक्ष्य का अनुसरण करते हैं ।

२४ फरवरी, १९३६

 

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     प्रचलित साधनाओं का लक्ष्य होता है 'परम चेतना' (सच्चिदानन्द) के साथ एक होना । और जो वहां पहुंच जाते हैं वे स्वयं अपनी मुक्ति से

 

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सन्तुष्ट हो जाते हैं और जगत् को इसकी दुर्दशा में छोड़ जाते हैं । इसके विपरीत, श्रीअरविन्द की साधना वहां से शुरू होती है जहां और सभी साधनाएं खतम होती हैं । एक बार परम प्रभु के साथ ऐक्य स्थापित हो जाने पर हमें उस सिद्धि को नीचे, इस बाहरी जगत् में उतारना होगा और पृथ्वी पर जीवन की अवस्थाओं को बदलना होगा, जबतक कि पूर्ण रूपान्तरण सिद्ध न हो जाये । इस लक्ष्य के अनुसार पूर्णयोग के साधक ध्यान और निदिध्यासन का जीवन बिताने के लिए इस जगत् को नहीं छोड़ते । हर एक को अपने समय का कम-से-कम एक तिहाई भाग उपयोगी कार्य में लगाना चाहिये । 'आश्रम' में सब प्रकार के क्रिया-कलाप के लिए स्थान है और हर एक ऐसा काम चुनता है जो उसके स्वभाव के अनुकूल हो, लेकिन हर एक को हमेशा सर्वांगीण रूपान्तर के लक्ष्य को दृष्टि में रखते हुए सेवा और निस्वार्थ भाव से कार्य करना चाहिये ।

 

     इस उद्देश्य को सम्भव बनाने के लिए, 'आश्रम' की व्यवस्था इस तरह हुई है कि यहां के सभी सदस्यों की उचित आवश्यकताएं पूरी हों, और उन्हें अपनी आजीविका के बारे में चिन्ता न करनी पड़े ।

 

     नियम बहुत कम हैं ताकि हर एक अपने विकास के लिए आवश्यक स्वाधीनता का रस ले सके लेकिन कुछ चीजों की सख्त मनाही है--वे हैं : (१) राजनीति, (२) धूम्रपान, (३) मद्यपान और (४) लैंगिक उपभोग ।

 

     छोटे बड़े बूढ़े-जवान सभी का अच्छा रूगस्थ्य बनाये रखने के लिए, और शरीर की स्वाभाविक वृद्धि और कुशल-क्षेम के लिए बहुत सावधानी बरती जाती है ।

२४ सितम्बर, १९५३

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     हम अब जो कर रहे हैं वह एक नयी चीज है; इसका अतीत के साथ कोई सम्बन्ध नहीं ।

 

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     हम इस जगत् में भगवान् की विजय चाहते हैं, इसकी सभी गतिविधियों पर विजय, और चाहते हैं यहां भगवान् की उपलब्धि ।

 

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    इसे एक साहसकार्य कहा जा सकता है क्योंकि पहली बार किसी योग ने भौतिक जीवन से निकल भागने की जगह उसे रूपान्तरित करने और दिव्य बनाने का लक्ष्य अपनाया है ।

 

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    प्रभु ने धरती पर 'अपने' कार्य के सम्पादित होने के लिए जो प्रेरणा भेजी है उसे हम यथासंभव पूर्ण रूप से भौतिक में चरितार्थ करना चाहते हैं ।

 

    और इसके लिए हर व्यष्टिगत अन्तरात्मा एक सहायक और सहयोगी है, लेकिन हर मानव अहं सीमा और बाधा भी है ।

५ अप्रैल, ११६०

 

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    जो लोग पूर्णयोग की साधना करना चाहते हैं उन्हें दृढ़ता के साथ यह सलाह दी जाती है कि वे इन तीन चीजों से परहेज करें :

    १) लैंगिक समागम

    २) धूम्रपान

    ३) मदिरा पान

१२ जून, १९३५

 

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     मैं जितना आगे जाती हूं उतना ही ज्यादा यह जानती हूं कि कर्म के द्वारा ही श्रीअरविन्द का पूर्णयोग सबसे अच्छी तरह किया जा सकता है । १ अक्तूबर, १९६६

 

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     पूर्णयोग में, तुम जो करते हो उसका नहीं, तुम जिस भाव से करते हो उसका महत्त्व है ।

१९७१

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